Friday 27 April 2012

श्यामाप्रसाद मुखर्जी


डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है - एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में। उनकी मिसाल दी जाती है - एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में।भारतीय इतिहास उन्हें सम्मान से स्वीकार करता है - एक जुझारू, कर्मठ, विचारक और चिंतक के रूप में। भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में उनकी गहरी छबि अंकित है- एक निरभिमानी, देशभक्त की। वे आज भी आदर्श हैं - बुद्धजीवियों और मनीषियों के। वे आज भी समाए हुए हैं - लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में।
6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता श्री आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। यह कहा जाता है कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात पात। इस कहावत को डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने चरितार्थ कर दिया। बाल्यकाल से ही उनकी अप्रतिम प्रतिभा की छाप दिखने लग गई थी। कुशाग्र बुिद्ध और जन्मजात प्रतिभासम्पन्न डॉ मुकर्जी ने 1917 में मेट्रिक तथा 1921 में बी ए की उपाधि प्राप्त की, पश्चात् 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित की एवं 1926 में वे इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बन स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कीं, और शीघ्र ही उनकी ख्याति एक शिक्षाविद् और लोकप्रिय प्रशासक के रूप में चहुँ ओर फैलती गई। उन्होंने अपने ज्ञान से, अपने विचारों से तथा तात्कालिक परिदृश्य की ज्वलंत परिस्थितियों का इतना सटीक विश्लेषण व विवेचन किया कि समाज के हर वर्ग, तबके और बुिद्धजीवियों को उनकी बुिद्ध का कायल होना पड़ा। उनकी ख्याति और कीर्तिमानों को मान्यता मिली, सम्मान मिला और मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में उन्हेंकलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति के अत्यन्त प्रतििष्ठत पद पर नियुक्ति दी गई। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक, एक चिन्तक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गई।
ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को एक दलविशेष के नेताओं ने अखण्ड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर विभाजन स्वीकार कर लिया। तब डॉ मुकर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। गांधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खंडित भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए, और उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के साथ-साथ अन्य नेताओं से मतभेद बने रहे। फलत: राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया, और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनाई जो कि विरोधी पक्ष में सबसे बडा दल था। उन्हें पं जवाहरलाल नेहरू का सशक्त विकल्प माने जाने लगा। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ। जिसके संस्थापक अध्यक्ष, डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी रहे।
संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। क्योंकि इस समय इनका बहुत महत्व है। इन्हें आत्म सम्मान तथा पारस्परिक सामंजस्य के साथ सजीव रखने की आवश्यकता है। है। डॉ मुकर्जी जम्मू काश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू काश्मीर का अलग झंडा था, अलग संविधान था, वहा¡ का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था। डॉ मुकर्जी ने जोरदार नारा बुलंद किया कि - एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ मुकर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की थी। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उदे्दश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपनी दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू काश्मीरकी यात्रा पर निकल पड़े। जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। वे भारत के लिए शहीद हो गए, और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नई दिशा दे सकता था।

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